राष्ट्रवादी नेताओं की नजर में नारी।
राकेश अचल का लेख। विषय बेहद संवेदनशील है ,लेकिन इसे छुए बिना रहा भी नहीं जा सकता। हाल ही में भाजपा के एक महासचिव ने महाविद्यालयीन लड़कियों की वेश -भूषा को लेकर कुछ ऐसा कह दिया की लोग पूछने लगे कि आखिर महिलाओं को लेकर भाजपा नेताओं का नजरिया आखिर है क्या? भाजपा कि नेता राष्ट्रवादी होते हैं इसलिए उन्हें राष्ट्र की बहुत चिंता होती है और इस चिंता में वे नारियों को लेकर कुछ न कुछ ऐसा बोलते हैं कि नारियों कि साथ ही नर भी तिलमिला जाते हैं।
पिछले साल संसद में एक महिला सांसद की हँसी पर किसी और ने नहीं बल्कि माननीय ने खुद कहा था कि ये हँसी किसी राक्षसी की हंसी जैसी लगती है। हँसी किसी महिला की है या किसी राक्षसी की ये पहचानने में बहुत समय लगता है । उनके साथ रहना पड़ता है। जो ये नहीं कर सकते,वे किसी भी हँसी का विवेचन नहीं कर सकते ,और यदि करते हैं तो ये स्वप्रमाणित है कि वे जिसके बारे में बात कररहे हैं उससे उनका सत्संग रहा है।
भाजपा के नेताओं को गोरी महिलायें कभी 'जर्सी गाय' नजर आतीं हैं तो कभी वे एक करोड़ की ' कालगर्ल ' नजर आने लगती हैं।कैलाश विजयवर्गीय को अब लड़कियां राक्षसी लगने लगीं हैं। जाहिर है कि वे राक्षसिनियों से मिलते,मिलाते रहे होंगे ,अन्यथा ऐसी तुलना वे कैसे कर सकते हैं ? महिलाओं को लेकर अजीबोगरीब टिप्पणियां करने वाले नेता ही कभी जिस्म फरोशी के आते हैं तो कभी उनका नाम 'हनीट्रैप' जैसे मामलों से बाबस्ता हो जाता है । उनकी सीडियां वायरल हो जातीं हैं।
महिलाओं और लड़कियों पर टिप्पणियां करते वक्त संसद में और संसद के बाहर भी सचेत रहने की जरूरत होती है ,लेकिन कोई ऐसा नहीं करता। बेचारी महिलायें मन मसोस कर रह जातीं है। वे तो मानहानि का मुकदमा तक दायर नहीं कर पाती । उनके साथ ' मी-टू' हो जाता है और वे खामोश रहतीं हैं। महिलाओं के खिलाफ ऐसी बेजायका टिप्पणियां सिर्फ इसलिए मुमकिन हो जाती हैं क्योंकि हमारा क़ानून इनके प्रति संवेदनशील और सख्त नहीं है आप आजाद है महिलाओं की हंसी या उनके पहनावे को आसुरी बताने के लिए।
अबला जीवन अभी भी दद्दा मैथिलीशरण गुप्त के जमाने वाला है । 'आँचल में है दूध और आँखों में पानी ' वाला। राष्ट्रवादी टीकाकारों का कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता। ज्यादा से जायदा प्रदर्शन कर टीकाकारों के पोस्टरों को चप्पलों से पीट सकती हैं महिलाये । भोपाल में महिलाओं ने ऐसा किया भी ,लेकिन इससे समस्या का अंत तो नहीं हो जाता ! भाजपा के संस्कारों में महिलाएं देवी हैं या नहीं ये वे जानें किन्तु कभी-कभी लगता है कि उन्हें महिलाओं में कोई रूचि नहीं है । यदि होती तो वे बसी बसाई गृहस्थी न छोड़ते। खैर ये नेताओं का निजी मामला है कि वे महिलाओं के साथ कैसा व्यवहार करें ,किन्तु जब वे महिलाओं और लड़कियों के बारे में कोई अभद्र टिप्पणी करें तो ये जरूर सोचें कि वे भारत में बोल रहे हैं,अफगानिस्तान में नहीं।
महिलाओं के ड्रेस कोड को लेकर भाजपा और उसके अनुषांगिक संगठन पहले भी हुल्ल्ड कर चुके है। कर्नाटक का हिजाब विवाद आप सभी को याद होगा। कैसे एक लड़की को केसरिया ध्वजाधारी घेर रहे थे और वो अकेली उनका सामना कर रही थी ? मामला अदालत तक गया।वो अलग बात है। अदालतें भी ये तय नहीं कर सकतीं कि कौन क्या खाये,क्या पहने,कैसी हेयर स्टाइल रखे ? ये सब निजता से जुड़े मामले हैं,सांस्कृतिक प्रदूषण फैलाने वाले नहीं। सांस्कृतिक प्रदूषण केवल पहनावे या खानपान से नहीं फैलता। ये शाखाएं लगाने से भी फैलता है। जहां महिलाएं तो होती ही नहीं हैं।
महिलाओं को लेकर ही नहीं भाजपा वाले तो हम पत्रकारों पर भी ऐसी ही अभद्र टिप्पणियां करने से नहीं कतराते । एक समय देश के सेनाध्यक्ष रहे एक केंद्रीय मंत्री ने पत्रकारों को क्या कहा था ये याद दिलाने की जरूरत नहीं है। सारी नीति और संस्कृति का ठेका भाजपा और उनके अनुषांगिक संगठनों ने ले लिया है। पता नहीं किस संहिता में उनका ये अधिकार पहले से लिख दिया गया है। कभी किसी महिला ने किसी मर्द के पहनावे पर टीका -टिप्पणी नहीं की तो फिर पुरुषों को ऐसा करने की क्या जरूरत है ? भाजपा के महासचिव कैलाश विजयवर्गीय की उनके अपने शहर इंदौर में बहुत लोकप्रियता है ,उन्हें प्रबुद्ध भी माना जाता है । मै भी उन्हें ऐसा ही मानता था,किन्तु उनकी हालिया टिप्पणी के बाद मेरी धारणा उनके प्रति बदल गयी है।
महिलाओं में सूर्पणखाओं का दर्शन करने वाले तमाम लोग चाहे वे किसी भी दल या दिल में रहते हों एक जैसे है। आप उन्हें एक ही थैली का चट्टा-बट्टा कह सकते हैं। उनके दिल में महिलाओं के प्रति कितना सम्मान है ये उनकी खुद की टिप्पणियां प्रमाणित करतीं हैं। एक तरफ भाजपा महिलाओं को तीन तलाक जैसी कुप्रथाओं से मुक्त कराने का दावा करती है तो दूसरी तरफ हिजाब का विरोध करती है । उसे मौसम के अनुरूप कपडे पहनने वाली लडकियां राक्षसी दिखाई देतीं हैं। ये अजीब विरोधाभास है। ये लड़ाई अब महिलाओं को खुद लड़ना चाहिए । संसद से लेकर सड़क तक इस लड़ाई की जरूरत है ,क्योंकि ये मामला महिलाओं की अस्मिता से जुड़ा मामला है।
महिलाओं की हंसी या उनके पहनावे को लेकर अभद्र टिप्पणी करने वाले लोग कुटिल मुस्कान के साथ भले ही माफी भी मांग लें तो भी उन्हें माफ़ नहीं किया जाना चाहिए ,क्योंकि उनका अपराध अक्षम्य है। क्षमा उसे किया जाता है जिसने इरादतन कोई अपराध न किया है । उसे नहीं जो इरादन अपराध करने वाला होता है। भाजपा वाले इरादतन ये अपराध करते हैं। महिलाओं के सांस्कृतिक ठेकेदार मुमकिन है कि दूसरे दलों में भी हों क्योंकि ममता और माया को छोड़ किसी भी दल की कमान महिलाओं के हाथ में नहीं है। अगर महिलायें राजनीतिक दलों की कमांडर बनने लगें तो शायद स्थितियां सुधर जाएँ। कांग्रेस ने लम्बे समय तक महिलाओं को अपने कमांडर के रूप में स्वीकार किया किन्तु बीते 43 साल में भाजपा ऐसा साहस प्रदर्शित नहीं कर पायी। ' मोदी है तो मुमकिन है ' के नारों के बीच भी ये मुमकिन नहीं हुआ । अमित शाह गए तो जेपी नड्ढासाहब आ गए। यानि आजादी से पहले और आजादी के बाद महिलाओं को भाजपा,जनसंघ और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ में महिला कमांडर नहीं मिलीं। काश कि ऐसा हो सकता तो तो फिर कोई महिलाओं की हंसी और उनके पहनावे की तुलना राक्षसनियों से न कर पाता।दुःख तो इस बात का है कि अपनी बेहूदा टिप्पणियों कि लिए कैलाश विजयवर्गीय या उनके नेताओं को पार्टी ने भी नहीं हड़का और तो और महिला राष्ट्रपति भी मौन रहीं। क्या उन्हें इस मामले में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए था ?ये कोई राजनितिक मुद्दा नहीं है ये महिलाओं की अस्मिता का मुद्दा है।