सावरकर,शरद और राहुल गांधी।
राकेश अचल का लेख। लोकसभा के लिए अयोग्य ठहराए गए कांग्रेस के नेता राहुल गांधी और शरद पंवार में फर्क है । सावरकर को लेकर दोनों अलग तरीके से सोचते हैं। और शायद जो सोचते हैं उसका सम्मान किया जाना चाहिए। आज देश के सामने मौजूद ज्वलंत मुद्दों को छोड़कर कोई यदि सावरकर को लेकर जुबानी जंग लड़े तो ये उसका मानसिक दिवालियापन है।
दामोदर सावरकर वीर थे या महावीर इस विवाद में मै कभी नहीं पड़त। वे दामोदर सावरकर थे और उन्होंने देश की आजादी को लिए अपने तरीके से काम किया। उन्हें उनके काम के बदले में क्या और कितना श्रेय मिला ये भी बताने की जरूरत नहीं है । वे वीर हैं या महावीर इसको लेकर भी आज टीका-टिपण्णी का कोई अर्थ नहीं है। ये सब बातें अप्रासंगिक और 'लत्ते का सांप ' कहें या ' तिल का ताड़ ' बनाने जैसी हैं। सावरकर के योगदान को इसी देश की कांग्रेस सरकार ने स्वीकार किया,सावरकर के सम्मान में डाक टिकिट जारी किये ,आदि-आदि। आज फिर सावरकर को लेकर शोर हो रहा है।
राष्ट्रवादी कांग्रेस के जनक और पूर्व केंद्रीय मंत्री शरद पंवार ने दामोदर सावरकर के बारे में बड़ी ही समझदारी की बात की। उन्होंने 32 साल पहले संसद में दामोदर सावरकर को प्रगतिशील नेता बताया था। उनकी प्रगतिशीलता का उदाहरण भी दिया था। वे दामोदर सावरकर से राहुल गांधी की असहमति को भी गलत नहीं मानते ,लेकिन मानने वाले मानते हैं और राहुल गांधी से माफी मांगने की मांग करते हैं। राहुल गांधी ने एक पत्रकार वार्ता में सिर्फ इतना कहा था कि- 'मै सावरकर नहीं हूँ जो माफी मांगू'। राहुल ने गलत भी नहीं कहा था । वे गांधी हैं ,सावरकर नहीं। वे न आजादी की लड़ाई में शामिल हुए, न जेल गए और न उन्होंने कोई विवादास्पद माफीनामा ही भरा।
राहुल की बात न किसी को चिढ़ाने के लिए कही गयी होगी और न उसके पीछे सावरकर को छोटा करके बताना रहा होगा । राहुल गांधी की तरह ही बहुत से ऐसे लोग हैं जिन्होंने सावरकर की जीवनी को उसी रूप में पढ़ा है जिस रूप में राहुल गांधी ने पढ़ा ,मैंने भी पढ़ा और मुकिन है की आपने भी पढ़ा हो ! सावरकर अब हमारा अतीत है। हमारा वर्तमान या भविष्य नहीं। उनसे जिन्हें प्रेरणा लेना है या उनकी पूजा करना है उन्हें शायद अब तक किसी ने रोका नहीं। जो लोग सावरकर को क्षमावीर मानते हैं उन्हें भी कोई रोक नहीं सकता। इसमें मान-अपमान की कोई बात नहीं है । अदलातों का वक्त बर्बाद करने की जरूरत नहीं है।
मेरे अपने शहर ग्वालियर के सपूत अटल बिहारी बाजपेयी के साथ भी एक माफीनामा ताउम्र बाबस्ता रहा ,लेकिन वे देश के प्रधानमंत्री बने। आज भी उनके सम्मान में कोई कमी नहीं है । जबकि उन्हें क्षमावीर साबित करने के लिए उनके ही एक सजातीय ने ताउम्र दस्तावेज जुटाए और बाकायदा अभियान चलाया था ,लेकिन अटल जी के परिवार और उनकी तरफ से कोई अदालत नहीं गया। सावरकार ने परिजनों को भी इस मामले में 'ठण्ड' रखना चाहिए। उन्हें राजनीति का औजार नहीं बनाना चाहिए। शरद पंवार की तरह व्यवहार करना चाहिए। शरद पंवार जैसे मंजे हुए,नेता अब देश में हैं ही कितने ? जो संतुलित बात कर सकें।
संयोग से आज शरद पंवार देश के प्रधानमंत्री पद की दौड़ में शामिल नहीं हैं,शायद इसीलिए वे अब तक ईडी,सीडी से बचे हुए हैं ,अन्यथा शरद पंवार को भी राहुल का हिमायती होने की वजह से परेशान किया जा चुका होता। विपक्ष के नेताओं को परेशान करने के लिए आज जिस तरह के हथकंडे अपनाये जा रहे हैं ,उनकी कोई सानी नहीं है। राज्यपाल से लेकर राम तक का इस्तेमाल इसके लिए किया जा रहा है । जो विपक्षी नेता ईडी,सीडी के जाल में नहीं फंसे उनके राज्यों में अब साम्प्रादायिक हिंसा की आग भड़काई जा रही है। लेकिन कोई इसकी बात नहीं कर सकता है । आरोप नहीं लगा सकत। लगाना भी नहीं चाहिए ,क्योंकि इससे राजनीतिक सौहार्द बिगड़ता है। हालांकि अब राजनीतिक सौहार्द अब गुजरे जमाने की बात हो गयी है। ये दौर ' राजनीतिक अदावत ' का दौर है,जिसमें हर वार कमर के नीचे किया जाता है।
शरद पंवार ने कहा कि राष्ट्रीय कथानक में सावरकर पर जोर देने की जरूरत नहीं है, खासतौर पर तब जब आम लोगों को चिंतित करने वाले कई बड़े मुद्दे हैं। और यही आज की हकीकत है। सावरकर की बैशाखी अब किसी के काम आने वाली नहीं है। अब युग मोदी जी का है। आप उनका नाम लें । उनके बारे में कोई टिप्पणी करे तो उसे जेल भेज दीजिये । आप ऐसा कर रहे हैं,कर सकते हैं। आपको कोई रोक नहीं सकता। भोपाल में माननीय के कार्यकर्म से पहले कांग्रेस की एक महिला नेता की गिरफ्तारी इसका ज्वलंत उदाहरण है।
एक आम आदमी के नाते मै ये महसूस करता हूँ कि आज के युग में आप अपनी जान हथेली पर रखने की क्षमता रखते हों तो ही कोई राजनीतिक टीका-टिप्पणी करने की जुर्रत करें ,अन्यथा मौन रहें। माफी मांगने से मौन रहना ज्यादा बेहतर है । मौन भी असहमति का एक रूप है । मौन केवल स्वीकृति का ही लक्षण नहीं होता ,मौन रहकर भी बड़ी से बड़ी लड़ाइयां लड़ी और जीती गयीं हैं। वेऐसे भी हमारे यहां अब प्रश्नाकुलता को राष्ट्रविरोधी माना जाने लगा है। प्रश्न करना और उत्तर की अपेक्षा करना इस अमृतकाल में वर्जित है।