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    विशेष लेख। पत्रकार सूचना के स्रोत को बताने के लिए बाध्य नहीं ।

    अतुल कपूर ( स्टेट हेड)

    विशेष लेख। पत्रकारों के लिए यह एक अच्छी खबर है कि पुलिस विभाग अथवा जिला प्रशासन का कोई भी अधिकारी किसी भी पत्रकार को समाचार का स्रोत बताने के लिए बाध्य नहीं कर सकता। सुप्रीम कोर्ट के हाल ही में दिए गए महत्वपूर्ण निर्णय में यह बात स्पष्ट की गई है कि पत्रकारों को अपने समाचार के सूत्र व साक्ष्य बताने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता। सुप्रीम कोर्ट ने राफेल डील मामले में दायर पुनर्विचार याचिका पर सुनवाई करते हुए कहा कि सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 ने भारत में शासन में क्रांति ला दी और आधिकारिक गोपनीयता अधिनियम (OSA) को पछाड़ दिया।

    आपको बताते चलें कि राफेल मामले में लीक हुए दस्तावेजों पर द हिंदू में लेखों की एक श्रृंखला लिखने वाले द हिंदू ग्रुप ऑफ पब्लिकेशंस के पूर्व प्रधान संपादक और निदेशक एन राम ने दावा किया था कि वह अपने स्रोतों का खुलासा नहीं करेंगे।

    10 अप्रैल, 2019 को सुप्रीम कोर्ट ने राफेल मामले में लीक हुए दस्तावेजों पर भरोसा करने, विशेषाधिकार का दावा करने के खिलाफ केंद्र की प्रारंभिक आपत्तियों को खारिज कर दिया और गुण-दोष के आधार पर पुनर्विचार याचिकाओं पर सुनवाई करने का फैसला किया। द हिंदू द्वारा तीन कथित रूप से गोपनीय दस्तावेजों के प्रकाशन पर सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि इस तरह के प्रकाशन का अधिकार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की संवैधानिक गारंटी के अनुरूप है। 

    फैसला सुनाने वाली तीन जजों की बेंच ने आगे कहा: "वास्तव में, 'द हिंदू' अखबार में उक्त दस्तावेजों का प्रकाशन कोर्ट को निरंतर उन विचारों की याद दिलाता है, जिसमें प्रेस की स्वतंत्रता को रोमेश थापर बनाम मद्रास राज्य और बृज भूषण बनाम दिल्ली राज्य समेत कई फैसलों में हमेशा सर्वोपरि रखा गया है।

    खंडपीठ ने ऑफिसियल सीक्रेट एक्ट के बारे में  कहा, "ऑफिसियल सिक्रेट एक्ट में कोई प्रावधान नहीं है और किसी अन्य कानून में ऐसा कोई प्रावधान हमारे ध्यान में नहीं लाया गया है, जिसके जरिए संसद ने कार्यकारिणी के हाथों में कोई शक्ति दी है कि वो सिक्रेट के रूप में चिन्हित दस्तावेजों के प्रकाशन को रोक दे या न्यायालय के समक्ष ऐसे दस्तावेजों को न रखे, जिन्हें कानूनी मुद्दे पर निर्णय लेने के लिए पेश करने को कहा गया हो।

    • पीठ ने फैसले में एसपीगुप्ता बनाम यूनियन ऑफ इंडिया पर भी भरोसा किया था।

    क्या पत्रकार अनुचित तरीके से और अवैध रूप से दस्तावेज प्राप्त करने के दोषी हो सकते हैं, पीठ ने इस सवाल पर कहा, "पूरन मल बनाम डाइरेक्टर ऑफ इंस्पेक्‍शन (इन्वेस्ट‌िगेशन) इनकम टैक्स, नई दिल्ली में कोर्ट का यह विचार था कि "साक्ष्य की स्वीकार्यता का परीक्षण इसकी प्रासंगिकता में निहित है, जब तक कि संविधान या अन्य कानून में अवैध तरीके से खोजे गए या जब्ती से प्राप्त कानूनी साक्ष्य पर स्पष्ट या आवश्यक रूप रोक ना हो।"

    • सूचना का अधिकार पत्रकारों का विशेषाधिकार

    इसमें कोई संदेह नहीं है कि किसी के सूचना के स्रोत का खुलासा न करने का पत्रकारिता का विशेषाधिकार उस नियम से अलग है, जिसके अनुसार साक्ष्य देना प्रत्येक व्यक्ति का दायित्व है। विधि आयोग ने अपनी 93वीं (1983) और 185वीं रिपोर्ट में दो बार इस विशेषाधिकार को संहिताबद्ध करने की सिफारिश की थी। 93वीं रिपोर्ट ने इस विशेषाधिकार को मान्यता देने के लिए भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 में धारा 132ए को शामिल करने की सिफारिश की ‌थी।

    विधि आयोग (2003) ने अपनी 185वीं रिपोर्ट में आईइए में धारा 132A को शामिल करके पत्रकारों के लिए स्रोत सुरक्षा विशेषाधिकार शामिल करने की अपनी सिफारिश को दोहराया।

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