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    मप्र का बजट, हाथ न मुठ्ठी ,खुरखुरा उठी।

    राकेश अचल का लेख। मध्यप्रदेश सरकार का चुनावी बजट देखक-पढ़कर मुझे बुंदेलखंड की एक कहावत ' हाथ न मुठ्ठी,खुरखुरा उठी ' की याद आ गयी .सरकार ने अपने लोक-लुभावन बजट में जितनी घोषणाएं की हैं ,वे सब 'उधार का सिन्दूर 'लेकर किसी युवती को सुहागिन बनाने जैसी हैं .कर्ज के बोझ से दबी सरकार ने मध्यप्रदेश का कुल बजट 3.14 लाख करोड़ रुपये का है, जो पिछले साल 2.79 लाख करोड़ रुपये का था। 55,709 करोड़ रुपये का राजकोषीय घाटा अनुमानितकिया गया  है।

    आम तौर पर बजट रेत पर महल बनाने जैसा है। लेकिन चुनावी साल में जो बजट बनाया जाता है वो रेत पर नहीं हवा में बनाया जाता है। ये मजबूरी का बजट होता है ,जिसमें ऐसी तमाम योजनाएं और घोषणाएं शामिल की जाती है जिन्हें अल्लादीन के चिराग का जिन्न भी पूरा नहीं कर सकता .इस हवा-हवाई बजट के झांसे में आकर या तो सरकार का बेड़ा पार हो जाता है या फिर डूब जाता है. एक तरह का जुआ है जो सरकार खेलती है। 

    ढाई साल पुरानी सत्ता के इस आखरी बजट में सरकार ने शासकीय सेवा में एक लाख से अधिक नई नियुक्तियां देने का अभियान प्रारंभ किया है। भोपाल में संत शिरोमणि रविदास ग्लोबल स्किल पार्क बनेगा। इसमें हर साल छह हजार प्रशिक्षणार्थियों को प्रशिक्षण दिया जाएगा।इसके साथ ग्वालियर, जबलपुर, सागर और रीवा में भी स्किल सेंटर शुरू किए जाएंगे। 2022-23 में सभी जिलों में 432 रोजगार मेलों का आयोजन किया। इन मेलों में 40 हजार 45 आवेदको को ऑफर लेटर प्रदान किया गया।काश ! प्रदेश की ये सब कार्य पहले ही करके दिखा देती .

    चुनावी बजट में इंदौर और भोपाल मेट्रो परियोजनाओं के लिए राज्य सरकार ने 710 करोड़ रुपये का प्रावधान किया है। इसी साल दोनों शहरों में मेट्रो का ट्रायल करने की योजना है। चुनावी दृष्टि से यह बेहद महत्वपूर्ण है।पीएम श्री योजना के लिए 277 करोड़ रुपये का प्रावधान किया गया है। इसी तरह मुख्यमंत्री कृषक विशाल जन सहायता योजना के अंतर्गत 1000 करोड़ रुपये का प्रावधान है।मुख्यमंत्री गोसेवा योजना के अंतर्गत 3346 गौशालाओं का निर्माण स्वीकृत किया गया है। कृषि संबंधित योजनाओं कुल 53,264 करोड़ रुपये का प्रावधान है।मुख्यमंत्री उद्यम क्रांति योजना, मुद्रा योजना एवं अन्य स्वरोजगार योजनाओं में 46.58 लाख से अधिक आवेदकों को 30 हजार करोड़ रुपये से अधिक का ऋण स्वीकृत किया गया है। इसके साथ 200 युवाओं को जापान भेजा जाएगा।

    दुनिया जानती है कि बजट बनाने वाले विशेषज्ञ नेता नहीं बल्कि वे प्रशासनिक अफसर होते हैं जो जनता को कल्पनालोक में घुमाने में सिद्धहस्त होते हैं .उन्हें पता होता है किस समय ,किसे लूटा जा सकता है .इस बार बारी नए मतदाताओं में लड़कियों  और महिलाओं  की है .इस चुनावी साल में प्रदेश में  'मुख्यमंत्री लाड़ली बहना योजना' की शुरुआत होगी। इस योजना में पात्र महिलाओं के बैंक खाते में एक हजार रुपया प्रतिमाह दिया जाएगा। इसके लिए वित्त वर्ष 2023-24 में आठ हजार करोड़ रुपये का प्रावधान प्रस्तावित है। प्रसूति सहायता योजना में 400 करोड़ का प्रावधान किया है। मुख्यमंत्री लाड़ली योजना में 229 करोड़ रुपये का प्रावधान। महिलाओं के लिए कुल 1.02 लाख करोड़ रुपये का प्रावधान मप्र सरकार ने किया है।राज्य सरकार ने घोषणा की है कि अपने-अपने स्कूल में 12वीं में टॉप करने वाली छात्राओं को ई-स्कूटी दी जाएगी।

    सरकारें  जो बजट बनाती  हैं यदि  उनके  अनुरूप काम हो  जाए तो कोई भी राज्य या देश स्वर्ग बन सकता है ,लेकिन बनता नहीं है,क्योंकि स्वर्ग को धरती पर कागजी बजट बनाकर नहीं उतारा जा सकता. विसंगति ये है कि बजट कभी वास्तविक नहीं होते,अनुमानित होते हैं ,अनुमान लगाना यानी ख्याली पुलाव पकाने जैसा होता है .पक गए तो ठीक  और न पके  तो भी  ठीक .चुनावी साल के बजट  में रंग चोखा लाने के लिए अतिरिक्त  मसाले  डाले  जाते  हैं .कश्मीरी लाल मिर्च की तरह .चुनावी बजट की घोषणाएं उस  चारे की तरह होता है जो जंगल  में शिकार  के लिए चारे  के रूप  में इस्तेमाल  किया जाता है। 

    सरकारों  की इस बाजीगरी को लेकर मै हमेशा  से अभिभूत  रहता  हूँ .मध्यप्रदेश के वित्त मंत्री जगदीश  देवड़ा जी जितनी अच्छी तलवार भांति हैं उतना ही बेहतर मनोरंजक बजट उनके हिस्से में आया है .चुनावी बजट बनानाआसान  काम नहीं है .जहां-जहां वोटों  की खेती  लहलहाती  दिखाई  देती है,वहां -वहां थ्रेशर लगाना पड़ते हैं .नेताओं और नौकरशाहों के दिमाग मिलाकर  ऐसा  तिलिस्म  तैयार  करते  हैं  कि आप  देखते  ही रह  जाएँ .भाजपा  ही नहीं यदि कांग्रेस  भी सत्ता में रही  होती  तो चुनावी  साल में ऐसा ही बल्कि इससे  ज्यादा  लोक-लुभावन  बजट  बनाती ,लेकिन कांग्रेस का दुर्भाग्य ये है कि उसे बजट बनाने का नहीं बल्कि बजट की आलोचना करने का काम मिला है .कांग्रेस ये काम भी ढंग  से नहीं कर पा  रही  है। 

    बजट में कोई सरकार नहीं बताती कि उसके पास जब खजाने  में पैसा  है ही नहीं तब ,आसमानी  घोषणाओं को आखिर पूरा कैसे किया जाएगा ? लोक कल्याणकारी राज्यों की परिकल्पना  में उधार के सिन्दूर से मांग  भरने  की परम्परा  रही है .सरकारें नए कराधान  से बचती  हैं और मुफ्त का माल  लुटाने  का अपराध  करती  हैं. कोई भी राजनीतिक दल इस मामले में कम नहीं है. हमाम  में सभी  निवस्त्र  हैं .जनता मुफ्तखोरी की आदी हो चुकी है .जनता को वो ही सरकार सबसे ज्यादा अच्छी लगती  है जो ज्यादा से ज्यादा मुफ्त का माल बांटती  हो .यानी भांग  पूरे  कुएं  में है .भगवान जनता को सद्बुद्धि दे तो मुमकिन है कि परिदृश्य बदले ,अन्यथा लोकतंत्र  की गंगा  हमेशा की तरह उलटी  ही भेजी। 

    बजट पर टिप्पणी करने का नैतिक अधिकार हम कलमचियों को भी नहीं है,क्योंकि हम भी कोई बड़े अर्थशास्त्री नहीं हैं,किन्तु जब देश के अर्थशास्त्री मौन साधकर बैठे हों तब हमारी अल्पबुद्धि से जितना कुछ  समझा  और समझाया  जा सके  उतना बेहतर है .वैसे  पब्लिक  के बारे  में कहा  जाता है कि ' पब्लिक  सब जानती है .सब पहचानती है .पिछले 75  साल से इसी  पब्लिक के बल -बूते  पर भारत  में लोकतंत्र ज़िंदा है। 

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